प्रेम और सत्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं....मोहनदास कर्मचंद गांधी...........मुझे मित्रता की परिभाषा व्यक्त करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि मैंने ऐसा मित्र पाया है जो मेरी ख़ामोशी को समझता है

Sunday, October 22, 2017

पापा का बाल मन, उनकी उम्र का मोहताज नहीं

पापा का बाल मन, उनकी उम्र का मोहताज नहीं

अपने सौभाग्य को केन्द्र में रखकर पापा के बारे में जब भी सोचता हूं, तो लाख परेशानी और चिंताओं के बीच भी चेहरे पर सुकून भरी मुस्कान आ जाती है। ये मुस्कान पापा की उसी छवि को प्रस्तुत करती है, जो मैंने होश सम्भालते ही उनके लिए महसूस की है। भावुकता, अनुशासन, समयनिष्ठ, स्पष्टवादिता और बालमन की जीती-जागती तस्वीर हैं पापा। ऐसा मैं इसलिए नहीं कह रहा हूं कि वे मेरे पिता हैं बल्कि ऐसा मैंने खुद महसूस किया है और प्रयासरत हूं कि मैं भी इनकी ये सभी विशेषताएं अंगीकार करूं। इन विशेषताओं में सर्वोपरि है उनका बाल मन। जो उनकी उम्र का मोहताज नहीं है। बच्चों को देखकर ऐसे खुश हो जाते हैं, जैसे सवेरे सवेरे बगिया में खिलते फूलों को देखकर माली।

इसके अलावा पापा की स्पष्टवादिता से भी मैं बहुत प्रभावित होता हूं। जो भी इनके दिल में होता है उसे स्पष्ट रूप से कह देते हैं। पापा हमेशा कहते हैं, बेटा मुझसे ये जोड़ घटाओ नहीं होता, जो बात है वह कह देता हूं। पापा की अनेक खूबसूरत कविताओं में से एक कविता इसी भाव को दर्शाती है कि- ‘कोयला जैसा बाहर से/ वैसा ही भीतर/ फिर भी/ दूसरों के लिए जलता है/ लेकिन आदमी का आजकल/ पता ही नहीं चलता है।’’

हम जानते हैं कि हमें जीने के लिए ऑक्सीजन चाहिए। इसके बिना हम जिंदा नहीं रह पाएंगे। लेकिन बचपन से मैंने महसूस किया है कि ऑक्सीजन के अलावा एक और चीज भी है जो पापा के लिए बहुत जरूरी है। और वो है- साहित्य। साहित्य जगत में बाल साहित्य विधा में देशभर में पापा ने अपनी छाप छोड़ी है। लेकिन मेरी इच्छा है कि उनकी ये छाप विदेश तक भी जाए।

घर में रखी हजारों किताबों को देखकर मैं बचपन में अक्सर पापा से कह देता था कि ‘पापा इतनी किताबों का हम क्या करेंगे?’ तब पापा का बड़ा सुंदर जवाब आता कि ‘बेटा, पुस्तकें हमारी सच्ची मित्र हैं, जो हमारा साथ कभी नहीं छोड़ती।’

मुझे आज भी याद है जब मैं लगभग 5-6 साल का था। पापा जगह-जगह पुस्तक प्रदर्शनी लगाया करते। प्रदर्शनी के लिए रखी ढेर सारी किताबों में से एक-आध किताब मैं भी उठाकर मेज पर रखवाता, ‘कम कीमत में कीमती किताबें’ स्लोगन वाले बैनर दीवारों पर सेलो टेप लगवाकर चिपकाने में सहायता करते हुए उनके इस अद्भुत मिशन में अपनी हाजिरी देने की कोशिश करता। वो बात अलग है कि मेरा ज्यादा ध्यान बगल वाली ‘बर्फ गोले’ की दुकान पर होता था।

सैकड़ों साहित्यिक सम्मेलनों में पापा मुझे अपने साथ ले जाते। आज भी ये अवसर मैं नहीं छोड़ता। उनके अनुभवों को मैंने भी महसूस किया है। इस बात में कोई दो राय नहीं कि अपने बच्चे को हरदम साथ रखने वाला पिता स्वयं अपने व्यक्तिगत जीवन में भी अनुशासित रहता है और यही अनुशासन, बच्चे के भीतर संस्कारों को जन्म देता है।

पापा जो कुछ भी लिखते हैं, पहले उसे पढक़र घर में हम सभी को सुनाते हैं और उनकी हर कृति भीतर तक छू जाती है। ये सिलसिला शुरू से लेकर अब तक जारी है। साहित्य के इस माहौल ने बहुत कुछ सिखाया है। आज ये लिख पाना भी मेरे लिए इसीलिए संभव हुआ है, क्योंकि समय-समय पर मुझे साहित्यिक खुराक मिलती रही है।

पापा जो कुछ भी लिखते हैं या लिखा हुआ पढक़र सुनाते हैं, तो वे उसे भीतर तक महसूस भी करते हैं। कविता पाठ करते समय मंच पर कई बार इनका दिल भर आता है। गला भर जाता है। आंखें नम हो जाती हैं। जो कि इनकी भावुकता की पराकाष्ठा कह सकता हूं।

इसके अलावा और भी कई क्षण ऐसे हैं जब हम दोनों ही आपस में गले लगकर भावुक हो जाते हैं। सन् 2012 में भी ऐसा ही एक पल तब आया जब किसी राजकीय कार्य से पापा का जयपुर जाना हुआ और मैं भी बीकानेर अपने कॉलेज से सीधा जयपुर पहुंच गया, आकाशवाणी में कंपीयर के रूप में युववाणी प्रोग्राम के लिए। शिक्षक भवन में पापा से मिला। बातें करते-करते रात वहीं गुजरी। सवेरे-सवेरे जब चाय की चुस्की लेने पापा शिक्षक भवन से बाहर गए, तो अखबार की ताजा हेडलाइन देखकर दौड़े चले आए। कमरे का दरवाजा खोला और नींद से मुझे जगाते हुए उल्लास के साथ बोले कि ‘बेटा बधाई हो, मुझे राजस्थानी भाषा में साहित्य अकादमी, नई दिल्ली से पुरस्कार देने की घोषणा हुई है।’ सचमुच ये वो पल था, जिसका मैंने काफी समय से इंतजार किया था। हम दोनों ने एक दूसरे को गले लगा लिया। दोनों की आंखें नम थी।

अपने मित्रों, रिश्तेदारों को जन्मदिवस या उनके जीवन के खास अवसरों पर सर्वप्रथमबधाई देने से भी पापा कभी नहीं चूकते। फिर चाहे उस बधाई का माध्यम टेलीफोन हो या फेसबुक।

पापा हमेशा से मेरे दोस्त बनकर रहे हैं। इसीलिए मुझे कभी बाहर दोस्त तलाशने की जरूरत ही महसूस नहीं हुई। उन्होंने हमेशा मुझे हौसला दिया है। मेरी हर इच्छा को इस सीख के साथ पूरा किया है, कि कुछ भी पाने के लिए मेहनत जरूरी है और पापा का एक खास डायलॉग जो अक्सर मुझसे कहते हैं, ‘बेटा जो मेरा है, वो तेरा है और जो तेरा है वो भी तेरा है। फिर मैं हंसकर उनसे कहता हूं, ‘तो पापा, फिर आपका क्या है?’’ पापा का जवाब होता है- ‘तुम ’

साहित्य के साथ-साथ पापा ने परिवार की हर जरूरत का भी बखूबी ख्याल रखा है। अपनी हर जिम्मेदारी को निभाया है। पापा ने मुझे कई दिन पहले अपने व्यक्तित्व और कृतित्व पर कुछ पंक्तियां लिखने को कहा था। असंख्य संस्मरण हैं लिखने को, लेकिन शब्द सीमा में बंधा होने के कारण मुझे यहीं विराम देना पड़ रहा है।

अंत में यही कि, पापा का मेरे और मेरा उनके प्रति जो स्नेह है, वो बयां कर पाना मेरे लिए नाममुकिन है। गर्व है मुझे मेरेे नसीब पर जिसमें ऐसे पिता मिले। इन पंक्तियों के साथ बस इतना लिखूंगा कि ये भावनाएं व्यक्त करने के विचार मात्र से ही मैं भीतर तक भर गया हूं। ‘तुम हो, तो मैं हूं............. तुम नहीं, तो कुछ भी नहीं।’

- दुष्यंत जोशी
पुत्र दीनदयाल शर्मा
मोबाइल: 9509471504

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